I. एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए:
- अपने आप को कौन भाग्यशालिनी समझ रही है?
उत्तर: अपने आप को गोपिकाएँ भाग्यशालिनी समझ रही है। - गोपिकाएँ किसे संबोधित करते हुए बातें कर रही है?
उत्तर: गोपिकाएँ उद्धव से संबोधित करते हुए बातें कर रही है। - श्रीकृष्ण के कान में किस आकार का कुंडल है?
उत्तरः श्रीकृष्ण के कान में मकर के आकार का कुंडल है। - वाणी कहाँ रह गई?
उत्तरः वाणी मुख्य द्वार तक आकर रह गई। - कौन अंतर की बात जानने वाले हैं?
उत्तरः भगवान श्रीकृष्ण अंतर की बात जानने वाले हैं। - श्रीकृष्ण के अनुसार किसने सब माखन खा लिया?
उत्तरः श्रीकृष्ण के अनुसार उनके सखा ने सब माखन खा लिया? - सूरदास किसकी शोभा पर बली हो जाते हैं?
उत्तरः सूरदास कृष्ण और गोपियों की शोभा पर बली हो जाते हैं।
II. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए।
- गोपिकाएँ अपने आप को क्यों भाग्यशाली समझती है?
उत्तर: गोपिकाएँ अपने आप को भाग्यशालिनी समझती है। क्योंकि जिन आँखों से उद्धव ने श्रीकृष्ण को देखा था, वे आँखें अब उन्हें मिल गई है। अर्थात गोपिकाएँ उद्धव के आँखो में श्याम की आँखेंश्याम की मूरत देख रहे हैं। जैसे-भौरों के प्रिय सुमन की सुगंध को हवा ले आती है, वैसे ही उद्धव को देखकर उन्हें अत्यधिक आनंद हो रहा था तथा उनके अंग-अंग सुख में रंग गया है। जैसे- दर्पण में अपना रुप देखने से दृष्टि अति रुचिकर लगने लगती है। उसी प्रकार उद्धव के नेत्र रुपी दर्पण में कृष्ण के नेत्रों के दर्शन कर गोपिकाओं को बहुत अच्छा लग रहा है इसलिए गोपिकाएँ अपने आप को भाग्यशालिनी समझती है। - श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर: सूरदास भगवान श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं- गोपिकाओं ने यमुना नदी तट पर श्रीकृष्ण को देख लिया। वे मोर मुकुट पहने हुए है। कानो में मकराकृत कुंडल धारण किए हुए हैं। पीले रंग के रेशमी वस्त्र पहने हुए हैं। उनके तन पर चंदन का लेप है। वे अत्यंत शोभायमान हैं। उनके दर्शन मात्र से गोपिका तृप्त हो गई। सुंदरियां प्रेम मग्न हो गई है। उनका हृदय भर आया है। सूरदास कहते हैं कि प्रभु श्रीकृष्ण अन्तर्यामी हैं और गोपिकाओं के व्रत को पूरा करने के लिए ही पधारे हैं। - सूरदास ने माखन चोरी प्रसंग का किस प्रकार वर्णन किया है?
उत्तरः श्रीकृष्ण अपने शाखा के साथ बार-बार माखन खाकर भाग जाते थे। एक दिन की बात है कि श्रीकृष्ण ने माखन चोरी करते हुए पकड़े गए। गोपिकाएँ कहती हैं- तुम तो दिन रात हमें सताते हो। आज तुम रंगे हाथ पकड़े गए हो। तुम ही सब माखन-दही खा जाते हो। अब तुम्हारा यह खेल खत्म हुआ। मैं तुम्हें भली भांति जानती हूँ। तुम ही माखनचोर हो। कान्हा के हाथ पकड कर गोपिकाएँ कहती हैं – माखन जितना चाहे मांग के खाते। तब निरागसत्ता से कान्हा कहते हैं- तुम्हारी सौगंध माखन मैने नहीं खाया है, मेरे सारे सखा ही खा गए हैं और मेरा नाम बदनाम करते हैं। कान्हा के मुख पर लगा माखन देखकर और उनकी प्यारी तुतलाती बोली को सुनकर गोपिकाएँ के हृदय ममता से भर उठता है। कान्हा का यह लुभावना रूप देखकर गोपिका का गुस्सा शांत हो जाता है और वे कान्हा को गोद में उठाकर गले से लगा लेती हैं। यह दृश्य देखकर सूरदास कहते हैं- ऐसे कान्हा और गोपिका पर तो मैं बलि हो जाता हूँ।
III. ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए:
- उद्धव हम आजू भई बड भागी
जिन अँखियान तुम श्याम बिलोंके, ते अँखियाँ हम लागी।
जैसे सुमन बास लौ आवत, पवन मधुप अनुरागी।
अति आनन्द होत हैं तैसे, अंग-अंग सुख रागी।
प्रसंगः प्रस्तुत पद को कवि सूरदास द्वारा लिखित सूरदास के पद पाठ से लिया गया है।
संदर्भ: प्रस्तुत पद में सूरदास ने गोपियाँ और मंत्री उद्धव के बीच के वार्तालाप के बारे में बताया है।
स्पष्टीकरणः सूरदास ने भ्रमर गीत में ब्रज की गोपिकाओं की विरह-व्यथा का बहुत ही मार्मिक ढंग से वर्णन किया है। श्रीकृष्ण कंस को मारने मथुरा गए थे। लेकिन बहुत दिनों तक ब्रज वापस नहीं आए, जिसके कारण यहाँ के गोपिकाएं श्रीकृष्ण के बिना उदास थी और मिलने के लिए तडप रही थी। वे श्रीकृष्ण का रास्ता देख रही थी। ये बात श्रीकृष्ण समझ रहे थे। इसलिए श्रीकृष्ण अपने सखा उद्धव को ब्रज के गोपिकाओं को संदेश भेजने के लिए वहाँ भेजते हैं कि मैं जल्द ही आकार तुम लोगों से मिलने वाला हूँ। तब गोपिकाएँअपने आपको भाग्यशालिनी समझने लगती है कहती है, जिस प्रकार फूल खिलने पर उसमें से सुगंधित खुशबू आने लगती है और उस पर भौरें मंडराते हुए फूल पर बैठकर उसका आनंद लेते हैं। उसी तरह कान्हा के आने का समाचार सुनकर अब हमलोगों के शरीर का अंग-अंग आनंदित हो रहा है।
विशेषताः श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति और प्रेम के बारे में बताया गया है।
2.ज्यों दरपन मैं दरस देखियत, दृष्टि परम रुचि लागी । तैसैं सूर मिले हरि हमकौं, बिरह-बिथा तन त्यागी |
प्रसंगःप्रस्तुत पद कवि सूरदास द्वारा लिखित सूरदास के पद पाठ से लिया गया है|। इसमें गोपिकाओं और उद्धव का संवाद चित्रित है, जहाँ गोपिकाएँ अपनी कृष्ण-भक्ति और विरह-वेदना व्यक्त कर रही हैं।
संदर्भःइस पद में कवि सूरदास ने गोपिकाओं की उस अवस्था का वर्णन किया है, जब वे उद्धव को देखकर स्वयं को कृष्ण-दर्शन के समान ही सुखद अनुभव करती हैं।
स्पष्टीकरणः गोपिकाएँ कहती हैं कि जैसे कोई व्यक्ति दर्पण में अपना रूप देखकर बहुत प्रसन्न होता है, उसी प्रकार जब हम उद्धव से मिले तो ऐसा लगा मानो स्वयं हरि (कृष्ण) ही हमसे मिल गए हों। इस मिलन से हमारी विरह-वेदना का नाश हो गया और तन-मन में सुख एवं संतोष छा गया।
विशेषताःइस पद में गोपिकाओं की अनन्य भक्ति, कृष्ण-प्रेम और उनकी विरह-वेदना का वर्णन है|
3.जमुना तट देखे नँद नंदन ।
मोर-मुकुट मकराकृत-कुंडल, पीत बसन तन चंदन ।
लोचन तृप्त भए दरसन तैं उर की तपनि बुझानी ।
प्रेम-मगन तब भईं सुंदरी, उर गदगद, मुख-बानी ।
कमल-नयन तट पर हैं ठाढ़े, सकुचहिं मिलि ब्रज नारी ।
सूरदास-प्रभु अंतरजामी, ब्रत-पूरन पगधारी ||
प्रसंगःप्रस्तुत पद कवि सूरदास द्वारा लिखित सूरदास के पद पाठ से लिया गया है|। । इसमें कवि ने भगवान श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य तथा गोपिकाओं पर उनके दर्शन के प्रभाव का चित्रण किया है।
संदर्भःइस पद में सूरदास ने वर्णन किया है कि जब गोपिकाओं ने यमुना तट पर नंद नंदन श्रीकृष्ण के दर्शन किए तो वे अत्यंत प्रसन्न और प्रेममग्न हो गईं।
स्पष्टीकरणःगोपिकाएँ देखती हैं कि श्रीकृष्ण ने सिर पर मोर-मुकुट, कानों में मकराकृत कुंडल, तन पर पीले वस्त्र और चंदन का लेप लगाए हुए हैं|उनके कमल-नयन अति मनोहर प्रतीत हो रहे हैं।गोपिकाओं की उनके दर्शन से लोचन-तृप्त हो गईं और उनके हृदय की तपन (विरह-दाह) शान्त हो गई।वे अत्यधिक प्रेममग्न होकर भावविह्वल हो गईं, उनकी वाणी गदगद हो उठी।ब्रज की सुंदरियाँ संकोचवश उनसे मिलने में हिचकिचा रही थीं।
सूरदास कहते हैं कि प्रभु श्रीकृष्ण अन्तर्यामी हैं और गोपिकाओं के व्रत को पूर्ण करने के लिए स्वयं ही आगे बढ़कर उनसे मिलते हैं|।
विशेषताःइस पद में श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य, गोपिकाओं की अनन्य भक्ति, और भक्तों के व्रत-पालन हेतु प्रभु की कृपा का हृदयस्पर्शी चित्रण किया गया है।
4.चोरी करत कान्ह धरि पाए ।
निसि-बासर मोहिँ बहुत सतायौ अब हरि अरि हाथहिँ आए।
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही ।
अब तो घात परे हौ लालन, तुम्हेँ भलै मैं चीन्ही ।
दोउ भुज पकरि, कहयौ कहँ जैहौँ माखन लेउँ मँगाइ ।
तेरी सौं मैं नेकुँ न खायौ, सखा गये सब खाइ ।
मुख तन चितै, बिहँसि हरि दीन्हौ, रिस तब गई बुझाइ ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ ||
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘सूरदास के पद’ से लिया गया है, जिसके रचयिता सूरदास जी हैं। संदर्भ : उपरोक्त पद्यांश में एक ग्वालिन बाल कृष्ण को माखन चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ लेती है और उन पर क्रोध प्रकट करती है। व्याख्या : सूरदास इस पद में कृष्ण के माखन चोरी पर नाराज़ ग्वालिन के भावों का वर्णन करते हैं। कृष्ण की रोज़-रोज़ की माखन चोरी से एक गोपी बहुत परेशान थी। कई दिनों से इंतजार में थी कि किसी प्रकार कृष्ण को रंगे हाथों पकड़ा जाय। आज कृष्ण पकड़ में आ गए तो गोपी कहने लगी – हे कृष्ण, तुमने रात-दिन मुझे बहुत सताया है, रोज-रोज चोरी करके भाग जाते हो, किसी तरह आज पकड़ में आए हो। मेरा सारा दही मक्खन खा लिया और शरारत अलग से की कि सारे बर्तन फोड़कर चले गए। मैं अब-तक सही चोर को पहचान नहीं पाई थी, पर अब मेरे हाथ लगे हो। मैंने भी इस माखन चोर को भलीभाँति पहचान लिया है। इदोनों भुजाएँ पकड़कर गोपिकाएँ कहती हैं – “अगर माखन चाहिए तो माँगकर खाओ।”तब कान्हा कहते हैं – “तुम्हारी सौगंध, मैंने माखन नहीं खाया, सब मेरे सखा खा गए हैं।”लेकिन जब गोपिकाओं ने कान्हा के मुख पर माखन देखा और उनकी प्यारी तुतलाती मुस्कान सुनी, तो उनका गुस्सा शांत हो गया। विशेष : इस पद में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाएँ, उनका भोला आकर्षक रूप, और गोपिकाओं का उनके प्रति ममत्व एवं वात्सल्य भाव का सजीव चित्रण है।

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